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Saturday, August 31, 2013


फुच्चे, लुच्चे, मीडिया और रेवोल्यूशनरी थॉट्स

क्रांति बड़ा पाक शब्द है, इसे ढ़ोने क्रांतिकारी अब बिरले ही मिलते हैं और यदि कहीं मिल जाएं तो लुप्तप्राय जीव की तरह सरकारें उन्हें ढ़ूंढ कर, उनका बैंड बजा डालती हैं। पता नहीं क्यों सरकारों को उनका पाक इरादा, नापाक क्यों लगता है। हां, क्रांति के अपडेटेड वर्जन रेवोल्यूशनरी थॉट्स की बात कुछ अलग है। शहरी फुच्चा कल्चर में यह शब्द एवैं ही नहीं पॉपुलर है। इसका अपना रेलेवेंश है। सिविल सोसायटी द्वारा वेटेड वर्ड है, जिससे फुच्चों का वेट वैसे बढ़ता चला जाता है जैसे रुपये के बरक्स डॉलर का भाव बढ़ता ही जा रहा है। क्रांति में थोड़ी हार्डनेस है, शायद इसलिए कि अंग्रेज और खजान सिंह, दुखवंत सिंह जैसे भारतीय अंग्रेज इसे विद्रोह समझते हैं, रेवोल्यूशनरी थिंकिंग क्रांति के उदारवाद का परिणाम है। रेवोल्यूशन के संदर्भ में उदारवाद को एलपीजी परिभाषित करता है।( अगर एलपीजी (लिबरलाईजेशन,प्राईवेटाइजेशन,ग्लोबलाइजेशन) के आने से एलपीजी इतना महंगा हो जाएगा इसका जरा सा भी अंदेशा होता तो शायद बैलेंस ऑफ पेमेंट को दुरूस्त के लिए देश की गृहणियां इक्यानवें में ही सरकार को अपने जेवर दान में दे चुकी होतीं।)
यहां के फुच्चों/ बड्डीज/ गायज (बिसलेरी वाले मैंगो पीपल कंर्स्नड ह्यूमेन बीइंग) की इंटेलेक्चुअल ग्रैविटी, शो करने का पैरामीटर है, रेवोल्यूशनरी थिंकिंग। बड़ा पॉपुलर शब्द है यह, जिसे सोशलिस्ट हैट की तरह हर फुच्चा अपने सर पर रखकर इंटेलेक्चुअल क्लब का मेंबर बनना चाहता है। फुच्चों की अपनी खास तह़जीब और संस्कृति है, जिसे समथिंग कोलमन कंपनी के अखबार ने सोशल वैलिडिटी देने का जिम्मा उठाया है। फुच्चों के पेरेंट्स के साथ प्राइवेट ट्रीट्री के तहत यह अपने मीडियानेट के माध्यम से इसे इंडोर्स भी कर रहा है। शहरी पॉप यूनिवर्सिटी जैसे डीयू, आईपी, जो स्टूडेंट की बजाय फुच्चों को अपने यहां एडमिशन देते हैं। यहां 36 रुपये जितनी भारी भरकम रकम प्रतिदिन कमाने वाले अमीर भारतीयों के बच्चों को दूर रखने और गरीब डाउन टू अर्थ, टैक्स ना चुकाने वाले, सफेद धन ऱखने वाले कालेपोश, सब्सिडी पाने वाले गरीब- भिखमंगे कॉरपोरेट्स, ब्यूरोक्रेट्स, एडवोकेट्स के मेरिटोरियस इनोसेंट चिल्ड्रेन को एडमिशन देने की नई नई स्ट्रैटजी बनाई जाती है।
फुच्चा पार्टी से निकलते ही इस जंतु का नया ठिकाना ग्लैमर की ओर कदम होता है और यदि ससुरा मीडिया में काम मिल जाए, तो फिर बंदे में गट्स आ जाता है। बड़ी से बड़ी सख्सियत से चाहें क्यों ना दो पल की मुलाकात हो, नाता वर्षों का जुड़ जाता है, और इसका इंस्टेंट एविडेंस(साक्ष्य) तुरंत फेसबुक पर आ जाता है।  
फिल्मी हस्ती हो या सूबे का मिनिस्टर या फिर कोई इंडस्ट्रियलिस्ट, उसे इंस्टेंटली अपना फ्रेंड, कजिन (कजिन शब्द उदारीकरण हो गया है भाई बहन के साथ-साथ गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है) या रिलेटिव बना लेते हैं। इसे वर्चुअल पावर स्ट्रेंथ कहते हैं। इसका ज्यादातर टेक्नोलॉजी इललिटरेट पावर जोन में किया जाता है, जिसके पहले निशाने पर पॉलिटिशंस होते हैं। फुच्चों की भाषा में इन्हें फूलिस (बेवकूफ) कहते हैं। यू नो नॉन इंग्लिश स्पीकिंग फूलिस काइंड ऑफ पॉलिटिशियंस, दे आर टोटली इडिएट। डोंट यू नो, आई हैव टॉक्ड विथ ए नंबर ऑफ सच इडिएट्स, दे थॉट दैट जैस्मिन रेवोल्यूशन टूक प्लेश द्यू टू फेसबुक, बट इट इज ए मिथ, इट्स ओनली द पार्ट ऑफ अमेरिकन स्ट्रैटजी जस्ट लाइक इंग्लिश मेन्स डिवाइड एंड रूल पॉलिसी, रिप्लेस्ड बाय रेवोल्यूशंस एंड क्राइसिस आर प्लेजर फॉर अमेरिकन्स इट हैज हेल्प्ड देम टू स्ट्रैन्थैन देयर इकॉनमी। सच एन इडिएट । ओह यार चूतिया कह चूतिया, इडिएट में वो वाली फिलिंग नहीं आती । बाय यूजिंग वर्चुअल मीडियम इट्स क्वाइट इजी टू मेक देम फूल।
       मीडिया में अब तो केवल महान व्यक्तित्व ही संपादक बन पाते हैं, क्रांतिकारी संपादक को रेवोल्यूसनरी थॉट वाले एडिटर्स ने रिप्लेस कर दिया है। युवाओं को फुच्चा बनाने वाले इन एडिटर्स का बस चलता तो कबका नेताओं को लुच्चा बना दिया होता और शायद आज लुच्चे कहे जाने में नेताजी अपने आप को गौरवान्वित भी महसूस करते। कोलमन कंपनी ने शायद इस शब्द का पेंटेंड भी करा लिया होता वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी ऑरगेनाइजेशन से या नहीं तो डीआरडीओ और आईआईटी के नक्शेकदम पर अफ्रिकन या सोमालियन, भूटान, नेपाल जैसे किसी तकनीक संपन्न अमीर राष्ट्र के इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी ऑरगेनाइजेशन से। इनके द्वारा लोकहित में किए गए इन बेहतर कारनामों से भले ही कुछ कुर्त्ता पहनने वाले झोलाछाप जर्नलिस्ट नाराज हों लेकिन मीडिया के बेताज बादशाहों, सुरदाजों, चीखनदाजों, शो ऑफजादों, भीमताल, नयनताल, कामकलाबाज, सुपरहीरो की बांछे (वैसे तो आजकल सबकुछ सफाचट होता है, लेकिन जहां भी लोकलाज के कारण बची होगी) खिल जरूर उठेगी। हां, एक और हैं, जिनके कारण बीते 20 सालों में ऐसे महान सूरमा पैदा हुए। उन्हें बड़ी तसल्ली हुई होगी। भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पुलिस सुप्रिटेंडेंट (एसपी ) की आत्मा को गहरी शांति की प्राप्ति हो रही होगी। इसी दिन के लिए तो उन्होंने आयरन कट्स आयरन के मुहावरे को पलटकर रख दिया था। सिरियस इंफो आयटम के लिए सीरियस जर्नलिस्ट नो वे, दे विल स्पॉयल द होल इंडस्ट्री, ओनली फुच्चाज आर अलाउड। विल हैव द स्लोगन लाइक समथिंग दैट करोलबाग वाले अरोड़ा मेड, डोंट यू नो द ही कांसेप्ट, रिश्ते ही रिश्ते। हैव आईडिया, ओके यस प्लेस दीज वर्ड्स बिफोर रीडिंग एनी न्यूज-  कंट्री सेज, होल कंट्री इज आक्सिंग यू, वी आर द फर्स्ट ब्रॉडकास्टिंग दिस न्यूज/ हैज ब्रॉडकास्टेड दिस न्यूज। क्लोज योर आइज एंड ऑनली फॉलो मी, यू पीपल वन डे रिमेंबर, यू पीपल बिकम द लीडर्स ऑफ दिस इंडस्ट्री (एज आई नो टुडे यू आर इडिएट, विल बी इडिएट फॉरएवर, आई एम हैप्पी बिकाज ऑफ यू पीपल इन फ्यूचर नो बॉडी विल रिमेंबर मी एज फादर ऑफ द नॉनसेंस मीडियाऑर द ग्रेट एडिटर्स ऑफ इडिएट्स)
© निरंजन

Monday, October 29, 2012


 कुर्सी के लिये कुपोषण का कपट

दिल्ली दूर नहीं लेकिन पहुंचने के लिये रास्ता चाहिये और रास्ता जब पेट से होकर निकले तो मंजिल तक पहुंचने की उम्मीद बढ़ जाती है । शायद यही वजह कि  एक तरफ गुजरात के पूर्व मंत्री मायाबेन कोडनानी समेत 32 लोगों को नरोडा पाटिया मामले में सजा सुनाई गई और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी लंदन के एक चर्चित अखबार वाल स्ट्रीट जर्नल को कुपोषण पर बयान देकर मीडिया और लोगों का ध्यान इस मुद्दे से भटकाने में सफल रहे । हालांकि मोदी के इस बयान का चौतरफा विरोध होने के बाद वाल स्ट्रीट जर्नल ने इस इंटरव्यू को अपने बेवसाईट से उतार लिया है।
कुपोषण पर दिये बयान में मोदी ने कहा था कि मध्यवर्गीय परिवारों  की  लड़कियां फैशन के चलते सेहत पर ध्यान नहीं देतीं । लड़कियां मोटी होने की वजह से दूध पीने से इंकार करती हैं । मोदी ने इंटव्यू में यह भी बताया  कि  गरीबों के फूड सप्लीमेंट के नाम पर सरकार ने  1900 करोड़ रुपए का बजट बनाया है । वर्ष 2007 में ये खर्च महज 206 करोड़ रूपये का था। मोदी के इस बयान पर गुजरात की जनता में आक्रोश है । लोगों ने  इस बयान कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की है ।
ये तमाम दावे अपनी जगह,  मोदी का बयान ही सूबे की जनता के प्रति उनका नजरिया जाहिर करने के लिए काफी है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारतीय राज्यों के भूखमरी सूचकांक में  गुजरात का  13 वां स्थान  है। यहां तक कि उड़ीसा, यूपी, बंगाल और असम जैसे पिछड़े राज्यों  की स्थिति भी गुजरात से बेहतर है। ऐसी विषम परिस्थितियां मोदी के विकास के दावे की हकीकत बयां करता है, और जीडीपी  आंकड़ो के तिलिस्म को भी धराशायी करता है ।
       दरअसल गुजरात की ख्याति जीडीपी और संप्रदायिक हिंसा के कोख से ही निकल कर पूरे देश में फैली है । मौत (कुपोषण) और हत्या (नरोडा पाटिया हिंसा) को संतुलित करने के लिए मोदी का कुपोषण पर बयान पूरी तरह से सियासी  है । राजनीतिक बिसात पर इस तरह का दांव नेताओं के लिए कोई नई बात नहीं है । कुपोषण के मुद्दे से मोदी मीडिया का भटकाव चाहते थे जिसमें वह सफल भी हुए , लेकिन विकास का पैमाना जो उन्होनें खुद गुजरात में स्थापित किया है , कई सवालों को खड़ी करती है । खासकर भूखमरी और सांप्रदायिक हिंसा की गतिविधियों के संदर्भ में ।
 नरोडा पाटिया केस की चर्चा ने कहीं न कहीं मोदी के सांप्रदायिक छवि को फिर से जिंदा करने का काम किया है । एक तरफ मोदी कहते हैं कि अगर मैं गोधरा दंगों का दोषी हूँ तो मुझे फांसी पर लटका दो और दूसरी तरफ कहते हैं कि यदि भारत का विकास करना है तो देश को गुजरात के विकास का माडल अपनाना ही होगा । मोदी की पहचान विकास के रोल माडल के साथ साथ एक सांप्रदायिक नेता की भी रही है । लेकिन मोदी  ऐसा बयान देकर कहीं न कहीं अपने विकास के मूल मुद्दे से भटकते नजर आ रहें हैं ।
मोदी के इस बयान ने सियासी हलकों में सनसनी फैलाने का काम किया है । कांग्रेसनीत सरकार के घोटालों से देश की जनता परेशान है । स्वयं बीजेपी भी इस समय में नेतृत्व संकट के दौर से गुज़र रही है । दरअसल देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में मोदी विकास का पर्याय बनकर उभरे हैं । लिहाजा ये माना जा रहा है कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारी के लिए सबसे उपयुक्त हैं । जाहिर है वर्तमान काल और परिस्थिति मोदी के लिये अनुकूल है । क्योंकि कैग के रिपोर्ट से लेकर रामदेव के आंदोलन तक, सभी में कांग्रेस को फज़ीहत का सामना करना पड़ा है ।
      पिछले सात वर्षों से गुजरात का औसत विकास दर 10 फीसद का रहा है , जो अपने आप में नरेन्द्र मोदी के सरकार की एक बड़ी उपलब्धि रही है । हाल में नीलसन और इंडिया टुडे ने एक सर्वें कराया था जिसमें लोगों ने प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी को अपनी पहली पसंद बताया है । प्रतिष्ठित टाईम मैग्जीन ने भी मोदी को भारत के प्रधानमंत्री पद के लिये प्रबल दावेदार बताया था ।
      लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह में कई रोड़े हैं, और इसकी शुरुआत उनके गृह राज्य से ही शुरु होती है । एक तरफ संजय जोशी भाजपा के भीतर ही रहकर ही मोदी के लिये दिक्कतें पैदा कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ केशुभाई पटेल जैसे कद्दावर नेता बागी भाजपाई नेताओं के साथ मिलकर नई पार्टी बना चुके है । आगामी चुनाव में मोदी के लिये वे नई मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। वैसे एनडीए में पीएम पद के लिए उनके नाम पर भविष्य में  सहमति बनती नहीं दिखाई दे रही है । एनडीए में नंबर दो का हैसियत रखने वाली पार्टी जनता दल (यू)  को मोदी की उम्मीदवारी से सख्त ऐतराज़ है ।
हाल ही में गूगल हैंग आउट पर  मोदी ने सेकुलरिज्म की परिभाषा देते हुए कहा कि इंडिया फर्स्ट ही मेरे लिये सेकुलरिज्म है। मोदी का यह बयान इस तऱफ ईशारा करता है कि वे संप्रदायिकता को विकास से सुपर इंपोज करना चाहते है ।
बहरहाल राजनीतिक रण में बयान के तरकश से ही निशाना साधा जाता है । गुजरात में चुनावी बयार बहना शुरु हो चुका है । ऐसे में मोदी को नरोडा पाटिया मामले में मिले झटके से कितना नुकसान होगा ये तो आगामी गुजरात विस चुनाव के महाभारत में ही साफ हो पायेगा ।      
  ©निरंजन 

Friday, September 16, 2011

फिल्म समीक्षाः बाडीगार्ड


 
बॉडीगार्ड एक वन-मैन शो फिल्म है । फिल्म की पटकथा सलमान खान को ध्यान में रखकर लिखी गयी है । खासकर सलमान के चुलबुले अंदाज को , जो दबंग से लेकर रेडी तक देखने को मिलता है । बॉडीगार्ड एक जबरदस्त एक्शन फिल्म है, जिसमें रोमांस का छौंक लगाया गया है । बॉडीगार्ड में साउथ के फिल्मों की तरह हैरतअंगेज़ एक्शन-फैंटेसी की झलक मिलती है । आमतौर पर ऐसे एक्शन सीन रजनीकांत के फिल्मों में होता है । सलमान का अपनी अन्य फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी एक लोकप्रिय संवाद है कि मुझपर इतना एहसान करना कि कोई एहसान नहीं करना
                        फिल्म के संवाद सपाट और भावहीन हैं । फिल्म की कहानी वन-लाइन स्टोरी है । बॉडीगार्ड लवली सिंह (सलमान) को दिव्या (करीना) की सिक्यूरिटी की डयूटी मिलती है । दिव्या, लवली सिंह को परेशान करने के चक्कर में उससे प्यार करने लगती है । इंटरवल तक एक्शन और फिल्म  का मधुर संगीत दर्शकों को बांधे रखता है । इंटरवल के बाद फिल्म में थोड़ा सस्पेंश पैदा किया गया है । लेकिन इस फिल्म का अंत बॉलीवुड के ज्यादातर फिल्मों की तरह सुखद ही होता है।                 
                          फिल्म की कहानी का निर्देशन मलयालम के मशहूर निर्देशक सिद्दीकी ने किया है । सिद्दीकी देश के ऐसे पहले निर्देशक हैं जिन्होंने एक ही फिल्म को चार बार निर्देशित किया है । बॉडीगार्ड पहले मलयालम में बनी, बाद में इसे तमिल ,तेलुगू और हिन्दी भाषा में भी बनाया गया । पटकथा और संवाद सिद्दीकी, जयप्रकाश चौकसे और किरण कोटियार ने लिखा है । गीत शब्बीर अहमद और निलेश मिश्रा ने लिखें हैं, जिसे संगीतबद्ध किया है हिमेश रेशमिया ने । विक्की सिदाना का एक्शन काफी रोमांचित करने वाला है । सिनेमेटोग्राफी सेजल शाह की है । बाक्स आफिस पर पहले ही दिन इसने धमाकेदार प्रदर्शन किया है । इस फिल्म से यह उम्मीद की जा रही है कि  यह बाक्स आफिस पर एक नया रिकार्ड बनाएगी।

Friday, January 28, 2011

कृषि का बदलता अर्थशास्त्र


कृषि सदा से ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है । भारत की कुल आबादी का 74 फीसदी हिस्सा गावों में रहता है। जाहिर सी बात है यह ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार प्रदान करती है । बदलते दौर में कृषि ने भी अपना स्वरुप बदला है , हम पारंपरिक खेती को बहुत पीछे छोड़ इंडस्ट्रीयल फार्मिंग को अपना रहे हैं । नवीनतम कृषि प्रणाली में खाद्यान्न उत्पादन के बदले उद्योगों के लिए कच्चे माल का उत्पादन किया जा रहा है। यही कारण है कि ऐसे कृषि उत्पादों के दर में बेतहासा वृद्धि हुई है । उदाहरण के  लिए अमेरिका में गेहूँ के समर्थन मूल्य में तब बेतहासा वृद्धि हुई थी ,जब गेहूँ का इस्तेमाल एथेनाल बनाने में किया जाने लगा । इन सबके बावजूद भारतीय कृषकों की स्थिति जस की तस है । इंडस्ट्रीयल फार्मिंग में लागत इतना ज्यादा है कि बिना मल्टीनेशनल कंपनियों के मदद से खेती नही की जा सकती है , और ये कंपनियां सारा  लाभ समेटकर चल देती हैं । भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है , इस बढ़ती जनसंख्या को ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न उपलब्ध कराना होगा । इस बढ़ती हुई आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए हमें प्रतिवर्ष  50-60 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन की जरुरत होगी । आजादी के समय हम खाद्यान्नों के लिए आत्मनिर्भर नहीं थे , लेकिन अस्सी के दशक में खाद्यान्नों के मामलें में हम आत्मनिर्भर हो चुके थे। रचनात्मक नियोजन , कृषि अनुसंधान तथा विकासोन्मुख नीतियों के चलते हमारा देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका है । 1950 में खाद्यान्न उत्पादन 50 मिलियन टन रहा, जो अब बढ़कर 233.64 मिलियन टन के रिकार्ड उत्पादन पर पहुँच चुका है। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में निश्चय ही हमने आशातीत सफलता पाई है लेकिन राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र के योगदान में तेजी से कमी आई है ,वहीं दूसरी ओर कृषि पर जनसंख्या की  निर्भरता में मामूली गिरावट देखी गई है। कृषि पर निर्भर जनसंख्या सन् 1950 में 67.5 फासदी थी ,जो सन् 1990 में धटकर 64.9 फीसदी हो गई और वर्तमान में यह 64 फीसदी है ।
                             ारतीय कृषि शुरु से ही सार्वजनिक निवेश औऱ सरकारी निवेश की मार झेल रही है। कृषि के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार धटा है । सन् 60-61 के दौरान कृषि में सार्वजनिक निवेश की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत थी जो सन् 2000 आते आते धटकर 23 प्रतिशत हो गई, जबकि इस समय व्यक्तिगत निवेश 66 प्रतिशत से बढ़कर 76.4 प्रतिशत हो गया था । यदि सरकारी निवेश का बात करें तो अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में शुद्ध घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत अंश कृषि में पूँजी के तौर पर निवेशित कर दिया गया था । नब्बे के दशक दौरान यह घटकर मात्र 6 प्रतिशत रह गया है । अगर सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) को देखें तो इसमें भी लगातार गिरावट आई है । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जी.डी.पी में कृषि की हिस्सेदारी लगभग 70 फीसदी थी , जो नब्बे के दशक में 2 फीसदी के आसपास पहुँच गई। सन् 2008 में जी.डी.पी में कृषि की भागीदारी 16.54 फीसदी रही ,सन 2009-09 में यह गिरकर 15.7 फीसदी पर आ गया और अभी यह 14.6 पर टिका हुआ है। इस प्रकार के आकड़े जी.डी.पी में लगातार गिरावट को दिखा रहे है। सरकारी उदासीनता ऐसे शिखर पर  आ पहुँचा है , जहां कृषि उत्पादों के कीमत बढ़ने पर राष्ट्रपति का बयान आता है कि इससे कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ है । सरकारी प्रयास की चर्चा करें तो कृषि के समुचित विकास के लिए हमारे यहां राष्ट्रीय कृषि नीति है , जिसका उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत का विकास करना है जो पूरे क्षेत्र में फैली होगी और कृषि उत्पादों के निर्यात के लाभ को अधिक बनाएगी। डब्ल्यू.टी.ओ  समझौते के बाद विश्व बाजारों तक हमारी पहुँच बढ़ने की संभावनाएँ हैं । भारत के कुल निर्यात का 15-20 फीसदी हिस्सा कृषि उत्पाद हैं । लेकिन विश्व निर्यात में हमारी भागीदारी 1 प्रतिशत से भी कम है। कृषि के लिए प्रौद्योगिकी ,सिंचाई के उन्नत साधन जुटाने के बजाय सरकारें खाद्यान्नों का नयूनतम समर्थन मूल्य तय कर अपनी जिम्मेदारियों से किनारा कर लेती हैं।  खाद्यान्न उत्पादन में हमने आशातीत सफलता पाई है लेकिन कृषकों की माली हालत में निरंतर गिरावट देखा जा रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट कृषक तथा कृषि पर आधारित लोगों की बदहाली का दास्तां बयां कर रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल आबादी का 77 प्रतिशत जनसंख्या प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम में जीवन यापन कर करा है । इन लोगों की बदहाली के पीछे प्रमुख कारणों में सरकारी उदासीनता औऱ राज्यों का अनियमित विकास है। 

                                              आजादी के समय में भारतीय कृषि पूर्णरूपेण वर्षा पर निर्भर था । खाद्यान्नों की निम्न उत्पादकता के कारण भारत को अमेरिका से अनाज आयात करना पड़ता था । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जमींदारों का वर्चस्व था ,ये खेती में कोई सुधार किए बिना , मनमाने ढ़ंग से किसानों से लगान की वसूली किया करते थे। कृषि में समानता लाने के लिए भू- सुधारों की आवश्यकता हुई, जिसका उद्देश्य कृषि में स्वामित्व परिवर्तन करना था। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही देश में जमींदारी प्रथा उन्मूलन तथा वास्तविक कृषकों को ही भू स्वामी बनाने जैसे कदम उठाये गए। समानता को बढ़ाने के लिए भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण की नीति बनाई गई।  इसके तहत एक व्यक्ति के लिए 18 एकड़ भूमि को अधिकतम सीमा माना गया। इस नीति का उद्देश्य लोगों में भू-स्वामित्व के संकेंद्रण को कम करना था। आजादी के बाद बनी पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को प्राथमिकता दी गई।  वर्ष 1949 में पंडित नेहरू की दूरदर्शिता का परिणाम अधिक अन्न उपजाओ कार्यक्रम था जिसने अकाल झेलते किसानों पर मरहम लगाने का काम किया। गांधी जी के अनुयायी और सामाजिक कार्यकर्ता आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में भू-दान आंदोलन चलाया , जिसका उद्देश्य जमीनदारों से भूमि मांगकर भूमिहीनों में बांटना था।  भारतीय कृषि का सबसे क्रांतिकारी काल 1966-84 का काल माना जाता है । इस काल में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। यह था अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता । कृषि वैज्ञानिक , कृषक औऱ नीति निर्माता एक मंच पर आए और हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ। भारत में हरित क्रांति लाने में सबसे बड़ी भूमिका अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक डा. नार्मन.ई.बारलाँग की रही। बारलाग के कारण ही  कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सन् 1963 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की । सन् 1966 में लोकसभा में बीज अधिनियम पारित हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जब जय जवान जय किसान का नारा दिया तब कई लोग नौकरी छोड़कर खेती करने लगे। कृषि अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए सन् 1966 में गोविंद वल्लभ पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय तथा सन् 1970 में राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। वर्ष 1972 में सरकार भू सुधार के लिए बटाईदारी अधिनियम लाई, जो अबतक का सबसे विवादास्पद विधेयक रहा है और अब तक अमल में नहीं लाया जा सका है। अस्सी के दशक के मध्य से धीरे धीरे कृषि की स्थिति खराब होने लगी। सन् 1990 आते आते राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय आर्थक परिदृश्य में तेजी से परिवर्तन आया । बढ़ते राजकोषीय घाटे पर खाद्यान्न रिआयत का मामला भारी पड़ने लगा। परिस्थितिवश सरकार खाद्यान्न रिआयतों से अपना पैर पीछे खींचने लगी । धीरे-धीरे कृषि सुधार की ओऱ अग्रसर हुआ। 1990 के बाद की सरकारी नीतियां कृषकों के हित में नहीं रही है । सेज ( विशेष आर्थिक क्षेत्र ) की स्थापना ऐसे ही समय में हुई है। सेज के माध्यम से सरकार बड़े पैमाने पर कृषि योग्य भूमि को गैर कृषि उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रही है। बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा पूंजी निवेश का द्वार खोलने के लिए 2005 में कान्ट्रैक्ट खेती का कानून बनाया जा चुका है। मौजूदा बजट में रोजगार के नाम पर 41 हजार करोड़ रूपये डाले गए हैं तो वहीं कारपोरेट सेक्टर को कर माफी और अन्य तरीकों से 76 हजार करोड़ रूपये का लाभ पहुँचाया जा रहा है। इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि सन् 2005 में ही बना रोजगार गारंटी अधिनियम है,जो कृषि मजदूरों को 100 दिन की रोजगार मुहैया कराता है। वर्तमान में मनरेगा से 1.79 करोड़ लोग लाभान्वित हो रहे हैं।

                              इन सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा अनेक सरकारी नीतियों के बावजूद कृषि से लोगों का पलायन और किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इन सबके पीछे कुछ बेहद ठोस कारण हैं ,जिनपर गौर करने की आवश्यकता है। देश में अपनी आवाज उठाने के लिए श्रमिक एवं पदाधिकारियों का संगठन तो है लेकिन किसानों का कोई संगठन नहीं है । सरकार अनाजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है लेकिन समय पर खरीद नहीं होती। राष्ट्रीयकृत बैंक घर बनाने एवं कार खरीदने लिए 8 से 9 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण देते हैं लेकिन ट्रैक्टर खरीदने के लिए 11 प्रतिशत की दर पर ऋण मिलता है। भारत के किसानों को अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम सब्सिडी दी जाती है। हालांकि वर्ष 2008 में प्राकृतिक आपदा को ध्यान में रखते हुए सरकार ऋण माफी योजना चलायी थी , जिसके तहत 71 हजार करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया । वर्ष 2009-10 में  भी देश के 626 जिलों में से 271 जिलों को सूखा प्रभावित जिला घोषित किया जा चुका है । दरअसल कृषि को एक मुकम्मल राष्ट्रीय नीति की दरकार है , जिससे वाकई कृषकों को चेहरे पर मुस्कान वापस लौट सके।